10 मजेदार कहानियां | 10 majedar kahaniya

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10 मजेदार कहानियां | 10 majedar kahaniya: दोस्तों आज हम इस पोस्ट में बहुत सारी Baccho ki kahaniya in hindi पढ़ेंगे आशा करता हु आपको ये bacho ki story कहानिया पढ़ कर मजा आएगा

ब्राह्मणी और तिल के बीज | मजेदार कहानियां

एक बार की बात है एक निर्धन ब्राह्मण परिवार रहता था, एक समय उनके यहाँ कुछ अतिथि आये, घर में खाने पीने का सारा सामान ख़त्म हो चुका था, इसी बात को लेकर ब्राह्मण और ब्राह्मण-पत्‍नी में यह बातचीत हो रही थी:

ब्राह्मण—-“कल सुबह कर्क-संक्रान्ति है, भिक्षा के लिये मैं दूसरे गाँव जाऊँगा । वहाँ एक ब्राह्मण सूर्यदेव की तृप्ति के लिए कुछ दान करना चाहता है ।”

पत्‍नी—“तुझे तो भोजन योग्य अन्न कमाना भी नहीं आता । तेरी प‍त्‍नी होकर मैंने कभी सुख नहीं भोगा, मिष्टान्न नहीं खाये, वस्त्र और आभूषणों को तो बात ही क्या कहनी ?”

ब्राह्मण—-“देवी ! तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए । अपनी इच्छा के अनुरुप धन किसी को नहीं मिलता । पेट भरने योग्य अन्न तो मैं भी ले ही आता हूँ । इससे अधिक की तृष्णा का त्याग कर दो । अति तृष्णा के चक्कर में मनुष्य के माथे पर शिखा हो जाती है ।”

ब्राह्मणी ने पूछा—-“यह कैसे ?”

तब ब्राह्मण ने सूअर,शिकारी और गीदड़ की यह कथा सुनाई

एक दिन एक शिकारी शिकार की खोज में जंगल की ओर गया । जाते-जाते उसे वन में काले अंजन के पहाड़ जैसा काला बड़ा सूअर दिखाई दिया। उसे देखकर उसने अपने धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक खींचकर निशाना मारा।

निशाना ठीक स्थान पर लगा। सूअर घायल होकर शिकारी की ओर दौड़ा । शिकारी भी तीखे दाँतों वाले सूअर के हमले से गिरकर घायल होगया । उसका पेट फट गया । शिकारी और शिकार दोनों का अन्त हो गया ।

इस बीच एक भटकता और भूख से तड़पता गीदड़ वहाँ आ निकला । वहाँ सूअर और शिकारी, दोनों को मरा देखकर वह सोचने लगा, “आज दैववश बड़ा अच्छा भोजन मिला है । कई बार बिना विशेष उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है । इसे पूर्वजन्मों का फल ही कहना चाहिए ।”

यह सोचकर वह मृत लाशों के पास जाकर पहले छोटी चीजें खाने लगा । उसे याद आगया कि अपने धन का उपयोग मनुष्य को धीरे-धीरे ही करना चाहिये; इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग की तरह करना उचित है । इस तरह अल्प से अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है । अतः इनका भोग मैं इस रीतिसे करुँगा कि बहुत दिन तक इनके उपभोग से ही मेरी प्राणयात्रा चलती रहे ।

यह सोचकर उसने निश्चय किया कि वह पहले धनुष की डोरी को खायगा । उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी; उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर कसकर बँधी हुई थी । गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर चबाया।

चबाते ही वह डोरी बहुत वेग से टूट गई; और धनुष के कोने का एक सिरा उसके माथे को भेद कर ऊपर निकला आया, मानो माथे पर शिखा निकल आई हो । इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वहीं मर गया ।

ब्राह्मण ने कहा—“इसीलिये मैं कहता हूँ कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है ।”

ब्राह्मणी ने ब्राह्मण की यह कहानी सुनने के बाद कहा—-“यदि यही बात है तो मेरे घर में थोड़े से तिल पड़े हैं । उनका शोधन करके कूट छाँटकर अतिथि को खिला देती हूँ ।”

ब्राह्मण उसकी बात से सन्तुष्ट होकर भिक्षा के लिये दूसरे गाँव की ओर चल दिया । ब्राह्मणी ने भी अपने वचनानुसार घर में पड़े तिलों को छाँटना शुरु कर दिया । छाँट-पछोड़ कर जब उसने तिलों को सुखाने के लिये धूप में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तिलों को मूत्र-विष्ठा से खराब कर दिया । ब्राह्मणी बड़ी चिन्ता में पड़ गई।

यही तिल थे, जिन्हें पकाकर उसने अतिथि को भोजन देना था । बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल माँगेगी तो कोई भी दे देगा । इनके उच्छिष्ट होने का किसी को पता ही नहीं लगेगा । यह सोचकर वह उन तिलों को छाज में रखकर घर-घर घूमने लगी और कहने लगी—-“कोई इन छँटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छँटे तिल देदे ।”

अचानक यह हुआ कि ब्राह्मणी तिलों को बेचने एक घर में पहुँच गई, और कहने लगी कि—“बिना छँटे हुए तिलों के स्थान पर छँटे हुए तिलों को ले लो ।” उस घर की गृहपत्‍नी जब यह सौदा करने जा रही थी तब उसके लड़के ने, जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा:

“माता ! इन तिलों को मत लो। कौन पागल होगा जो बिना छँटे तिलों को लेकर छँटे हुए तिल देगा । यह बात निष्कारण नहीं हो सकती । अवश्यमेव इन छँटे तिलों में कोई दोष होगा।”

पुत्र के कहने से माता ने यह सौदा नहीं किया।

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व्यापारी के पुत्र की कहानी | मजेदार कहानियां

किसी नगर में एक व्यापारी का पुत्र रहता था। दुर्भाग्य से उसकी सारी संपत्ति समाप्त हो गई। इसलिए उसने सोचा कि किसी दूसरे देश में जाकर व्यापार किया जाए। उसके पास एक भारी और मूल्यवान तराजू था। उसका वजन बीस किलो था। उसने अपने तराजू को एक सेठ के पास धरोहर रख दिया और व्यापार करने दूसरे देश चला गया।

कई देशों में घूमकर उसने व्यापार किया और खूब धन कमाकर वह घर वापस लौटा। एक दिन उसने सेठ से अपना तराजू माँगा। सेठ बेईमानी पर उतर गया। वह बोला,

‘भाई तुम्हारे तराजू को तो चूहे खा गए।’ व्यापारी पुत्र ने मन-ही-मन कुछ सोचा और सेठ से बोला-

‘सेठ जी, जब चूहे तराजू को खा गए तो आप कर भी क्या कर सकते हैं! मैं नदी में स्नान करने जा रहा हूँ। यदि आप अपने पुत्र को मेरे साथ नदी तक भेज दें तो बड़ी कृपा होगी।’

सेठ मन-ही-मन भयभीत था कि व्यापारी का पुत्र उस पर चोरी का आरोप न लगा दे। उसने आसानी से बात बनते न देखी तो अपने पुत्र को उसके साथ भेज दिया।स्नान करने के बाद व्यापारी के पुत्र ने लड़के को एक गुफ़ा में छिपा दिया। उसने गुफा का द्वार चट्टान से बंद कर दिया और अकेला ही सेठ के पास लौट आया।

सेठ ने पूछा, ‘मेरा बेटा कहाँ रह गया?’ इस पर व्यापारी के पुत्र ने उत्तर दिया,

‘जब हम नदी किनारे बैठे थे तो एक बड़ा सा बाज आया और झपट्टा मारकर आपके पुत्र को उठाकर ले गया।’ सेठ क्रोध से भर गया।

उसने शोर मचाते हुए कहा-‘तुम झूठे और मक्कार हो। कोई बाज इतने बड़े लड़के को उठाकर कैसे ले जा सकता है? तुम मेरे पुत्र को वापस ले आओ नहीं तो मैं राजा से तुम्हारी शिकायत करुँगा’

व्यापारी पुत्र ने कहा, ‘आप ठीक कहते हैं।’ दोनों न्याय पाने के लिए राजदरबार में पहुँचे।

सेठ ने व्यापारी के पुत्र पर अपने पुत्र के अपहरण का आरोप लगाया। न्यायाधीश ने कहा, ‘तुम सेठ के बेटे को वापस कर दो।’

इस पर व्यापारी के पुत्र ने कहा कि ‘मैं नदी के तट पर बैठा हुआ था कि एक बड़ा-सा बाज झपटा और सेठ के लड़के को पंजों में दबाकर उड़ गया। मैं उसे कहाँ से वापस कर दूँ?’

न्यायाधीश ने कहा, ‘तुम झूठ बोलते हो। एक बाज पक्षी इतने बड़े लड़के को कैसे उठाकर ले जा सकता है?’

इस पर व्यापारी के पुत्र ने कहा, ‘यदि बीस किलो भार की मेरी लोहे की तराजू को साधारण चूहे खाकर पचा सकते हैं तो बाज पक्षी भी सेठ के लड़के को उठाकर ले जा सकता है।’

न्यायाधीश ने सेठ से पूछा, ‘यह सब क्या मामला है?’

अंततः सेठ ने स्वयं सारी बात राजदरबार में उगल दी। न्यायाधीश ने व्यापारी के पुत्र को उसका तराजू दिलवा दिया और सेठ का पुत्र उसे वापस मिल गया।

अभागा बुनकर | मजेदार कहानियां

एक नगर में सोमिलक नाम का जुलाहा रहता था । विविध प्रकार के रंगीन और सुन्दर वस्त्र बनाने के बाद भी उसे भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन कभी प्राप्त नहीं होता था। अन्य जुलाहे मोटा-सादा कपड़ा बुनते हुए धनी हो गये थे।

उन्हें देखकर एक दिन सोमलिक ने अपनी पत्‍नी से कहा—“प्रिये ! देखो, मामूली कपड़ा बुनने वाले जुलाहों ने भी कितना धन-वैभव संचित कर लिया है और मैं इतन सुन्दर, उत्कृष्ट वस्त्र बनाते हुए भी आज तक निर्धन ही हूँ । प्रतीत होता है यह स्थान मेरे लिये भाग्यशाली नहीं है; अतः विदेश जाकर धनोपार्जन करुँगा ।”

सोमिलक-पत्‍नी ने कहा—“प्रियतम ! विदेश में धनोपार्जन की कल्पना मिथ्या स्वप्न से अधिक नहीं । धन की प्राप्ति होनी हो तो स्वदेश में ही हो जाती है । न होनी हो तो हथेली में आया धन भी नष्ट हो जाता है । अतः यहीं रहकर व्यवसाय करते रहो, भाग्य में लिखा होगा तो यहीं धन की वर्षा हो जायगी ।”

सोमिलक—“भाग्य-अभाग्य की बातें तो कायर लोग करते हैं । लक्ष्मी उद्योगी और पुरुषार्थी शेर-नर को ही प्राप्त होती है । शेर को भी अपने भोजन के लिये उद्यम करना पड़ता है । मैं भी उद्यम करुँगा; विदेश जाकर धन-संचय का यत्‍न करुँगा ।”

यह कहकर सोमिलक वर्धमानपुर चला गया । वहाँ तीन वर्षों में अपने कौशल से ३०० सोने की मुहरें लेकर वह घर की ओर चल दिया । रास्ता लम्बा था । आधे रास्ते में ही दिन ढल गया, शाम हो गई। आस-पास कोई घर नहीं था।

एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर रात बिताई। सोते-सोते स्वप्न आया कि दो भयंकर आकृति के पुरुष आपस में बात कर रहे हैं । एक ने कहा —-“हे पौरुष ! तुझे क्या मालूम नहीं है कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता; तब तूने इसे ३०० मुहरें क्यों दीं ?” दूसरा बोला—-“हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक पुरुषार्थी को एक बार उसका फल दूंगा ही । उसे उसके पास रहने देना या नहीं रहने देना तेरे अधीन है ।”

स्वप्न के बाद सोमिलक की नींद खुली तो देखा कि मुहरों का पात्र खाली था । इतने कष्टों से संचित धन के इस तरह लुप्त हो जाने से सोमिलक बड़ा दुःखी हुआ, और सोचने लगा—“अपनी पत्‍नी को कौनसा मुख दिखाऊँगा, मित्र क्या कहेंगे ?” यह सोचकर वह फिर वर्धमानपुर को ही वापिस आ गया।

वहाँ दित-रात घोर परिश्रम करके उसने वर्ष भर में ही ५०० मुहरें जमा करलीं । उन्हें लेकर वह घर की ओर जा रहा था कि फिर आधे रास्ते में रात पड़ गई । इस बार वह सोने के लिये ठहरा नहीं; चलता ही गया । किन्तु चलते-चलते ही उसने फिर उन दोनों—पौरुष और भाग्य—को पहले की तरह बात-चीत करते सुना । भाग्य ने फिर वही बात कही कि—-“हे पौरुष ! क्या तुझे मालूम नहीं कि सोमिलक के पास भोजन वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता । तब, उसे तूने ५०० मुहरें क्यों दीं ?” पौरुष ने वही

उत्तर दिया —-“हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक व्यवसायी को एक बार उसका फल दूंगा ही, इससे आगे तेरे अधीन है कि उसके पास रहने दे या छीन ले ।” इस बात-चीत के बाद सोमिलक ने जब अपनी मुहरों वाली गठरी देखी तो वह मुहरों से खाली थी ।

इस तरह दो बार खाली हाथ होकर सोमिलक का मन बहुत दुःखी हुआ । उसने सोचा—-“इस धन-हीन जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है । आज इस वृक्ष की टहनी से रस्सी बाँधकर उस पर लटक जाता हूँ और यहीं प्राण दे देता हूँ ।”

गले में फन्दा लगा, उसे टहनी से बाँध कर जब वह लटकने ही वाला था कि उसे आकाश-वाणी हुई—“सौमिलक ! ऐसा दुःसाहस मत कर । मैंने ही तेरा धन चुराया है। तेरे भाग्य में भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन का उपभोग नहीं लिखा । व्यर्थ के धन-संचय में अपनी शक्तियाँ नष्ट मत कर। घर जाकर सुख से रह । तेरे साहस से तो मैं प्रसन्न हूँ ; तू चाहे तो एक वरदान माँग ले । मैं तेरी इच्छा पूरी करुँगा।”

सोमिलक ने कहा —-“मुझे वरदान में प्रचुर धन दे दो।”

अदृष्ट देवता ने उत्तर दिया—-“धन का क्या उपयोग ? तेरे भाग्य में उसका उपभोग नहीं है । भोग-रहित धन को लेकर क्या करेगा ?”

सोमिलक तो धन का भूखा था, बोला—-“भोग हो या न हो, मुझे धन ही चाहिये । बिना उपयोग या उपभोग के भी धन कि बड़ी महिमा है । संसार में वही पूज्य माना जाता है, जिसके पास धन का संचय हो । कृपण और अकुलीन भी समाज में आदर पाते हैं ।

सोमिलक की बात सुनने के बाद देवता ने कहा —-“यदि यही बात है, धन की इच्छा इतनी ही प्रबल है तो तू फिर वर्धमानपुर चला जा । वहां दो बनियों के पुत्र हैं; एक गुप्तधन, दूसरा उपभुक्त धन । इन दोनों प्रकार के धनों का स्वरुप जानकर तू किसी एक का वरदान मांगना । यदि तू उपभोग की योग्यता के बिना धन चाहेगा तो तुझे गुप्त धन दे दूंगा और यदि खर्च के लिये धन चाहेगा तो उपभुक्त धन दे दूंगा ।”

यह कहकर वह देवता लुप्त हो गया। सोमिलक उसके आदेशानुसार फिर वर्धमानपुर पहुँचा। शाम हो गई थी। पूछता-पूछता वह गुप्तधन के घर पर चला गया। घर पर उसका किसी ने सत्कार नहीं किया। इसके विपरीत उसे भला-बुरा कहकर गुप्तधन और उसकी पत्‍नी ने घर से बाहिर धकेलना चाहा। किन्तु, सोमिलक भी अपने संकल्पा का पक्का था। सब के विरुद्ध होते हुए भी वह घर में घुसकर जा बैठा।

भोजन के समय उसे गुप्तधन ने रुखीसूखी रोटी दे दी । उसे खाकर वह वहीं सो गया । स्वप्न में उसने फिर वही दोनों देव देखे । वे बातें कर रहे थे । एक कह रहा था — “हे पौरुष ! तूने गुप्तधन को भोग्य से इतना अधिक धन क्यों दे दिया कि उसने सोमिलक को भी रोटी देदी ।” पौरुष ने उत्तर दिया—-“मेरा इसमें दोष नहीं । मुझे पुरुष के हाथों धर्म-पालन करवाना ही है, उसका फल देना तेरे अधीन है ।”

दूसरे दिन गुप्तधन पेचिश से बीमार हो गया और उसे उपवास करना पड़ा । इस तरह उसकी क्षतिपूर्त्ति हो गई ।

सोमिलक अगले दिन सुबह उपभुक्त धन के घर गया । वहां उसने भोजनादि द्वारा उसका सत्कार किया । सोने के लिये सुन्दर शय्या भी दी । सोते-सोते उसने फिर सुना; वही दोनों देव बातें कर रहे थे । एक कह रहा था —“हे पौरुष ! इसने सोमिलक का सत्कार करते हुए बहुत धन व्यय कर दिया है। अब इसकी क्षतिपूर्त्ति कैसे होगी ?”

दूसरे ने कहा —“हे भाग्य ! सत्कार के लिये धन व्यय करवाना मेरा धर्म था, इसका फल देना तेरे अधीन है ।”

सुबह होने पर सोमिलक ने देखा कि राज-दरबार से एक राज-पुरुष राज-प्रसाद के रुप में धन की भेंट लाकर उपभुक्त धन को दे रहा था।

यह देखकर सोमिलक ने विचार किया कि “यह संचय-रहित उपभुक्त धन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है। जिस धन का दान कर दिया जाय या सत्कार्यों में व्यय कर दिया जाय वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है।

कौवे और उल्लू के बैर की कथा | मजेदार कहानियां

एक बार हंस, तोता, बगुला, कोयल, चातक, कबूतर, उल्लू आदि सब पक्षियों ने सभा करके यह सलाह की कि उनका राजा वैनतेय केवल वासुदेव की भक्ति में लगा रहता है; व्याधों से उनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं करता; इसलिये पक्षियों का कोई अन्य राजा चुन लिया जाय । कई दिनों की बैठक के बाद सब ने एक सम्मति से सर्वाङग सुन्दर उल्लू को राजा चुना ।

अभिषेक की तैयारियाँ होने लगीं, विविध तीर्थों से पवित्र जल मँगाया गया, सिंहासन पर रत्‍न जड़े गए, स्वर्णघट भरे गए, मङगल पाठ शुरु हो गया, ब्राह्मणों ने वेद पाठ शुरु कर दिया, नर्तकियों ने नृत्य की तैयारी कर लीं; उलूकराज राज्यसिंहासन पर बैठने ही वाले थे कि कहीं से एक कौवा आ गया ।

कौवे ने सोचा यह समारोह कैसा ? यह उत्सव किस लिए ? पक्षियों ने भी कौवे को देखा तो आश्चर्य में पड़ गए । उसे तो किसी ने बुलाया ही नहीं था । भिर भी, उन्होंने सुन रखा था कि कौआ सब से चतुर कूटराजनीतिज्ञ पक्षी है; इसलिये उस से मन्त्रणा करने के लिये सब पक्षी उसके चारों ओर इकट्‌ठे हो गए ।

उलूक राज के राज्याभिषेक की बात सुन कर कौवे ने हँसते हुए कहा—-“यह चुनाव ठीक नहीं हुआ । मोर, हंस, कोयल, सारस, चक्रवाक, शुक आदि सुन्दर पक्षियों के रहते दिवान्ध उल्लू ओर टेढ़ी नाक वाले अप्रियदर्शी पक्षी को राजा बनाना उचित नहीं है।

वह स्वभाव से ही रौद्र है और कटुभाषी है । फिर अभी तो वैनतेय राजा बैठा है । एक राजा के रहते दूसरे को राज्यासन देना विनाशक है । पृथ्वी पर एक ही सूर्य होता है; वही अपनी आभा से सारे संसार को प्रकाशित कर देता है । एक से अधिक सूर्य होने पर प्रलय हो जाती है । प्रलय में बहुत से सूर्य निकल जाते हैं; उन से संसार में विपत्ति ही आती है, कल्याण नहीं होता ।

राजा एक ही होता है । उसके नाम-कीर्तन से ही काम बजातेहैं।

“यदि तुम उल्लू जैसे नीच, आलसी, कायर, व्यसनी और पीठ पीछे कटुभाषी पक्षी को राजा बनाओगे तो नष्ट हो जाओगे ।

कौवे की बात सुनकर सब पक्षी उल्लू को राज-मुकुट पहनाये बिना चले गये । केवल अभिषेक की प्रतीक्षा करता हुआ उल्लू उसकी मित्र कृकालिका और कौवा रह गये । उल्लू ने पूछा—-“मेरा अभिषेक क्यों नहीं हुआ ?”

कृकालिका ने कहा—-“मित्र ! एक कौवे ने आकर रंग में भंग कर दिया । शेष सब पक्षी उड़कर चले गये हैं, केवल वह कौवा ही यहाँ बैठा है ।”

तब, उल्लू ने कौवे से कहा—-“दुष्ट कौवे ! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था जो तूने मेरे कार्य में विघ्न डाल दिया । आज से मेरा तेरा वंशपरंपरागत वैर रहेगा ।”

यह कहकर उल्लू वहाँ से चला गया । कौवा बहुत चिन्तित हुआ वहीं बैठा रहा । उसने सोचा—-“मैंने अकारण ही उल्लू से वैर मोल ले लिया । दुसरे के मामलों में हस्तक्षेप करना और कटु सत्य कहना भी दुःखप्रद होता है ।”

यही सोचता-सोचता वह कौवा वहाँ से चला गया । तभी से कौओं और उल्लुओं में स्वाभाविक वैर चला आता है ।

हाथी और चतुर खरगोश | मजेदार कहानियां

एक वन में ’चतुर्दन्त’ नाम का महाकाय हाथी रहता था । वह अपने हाथीदल का मुखिया था । बरसों तक सूखा पड़ने के कारण वहा के सब झील, तलैया, ताल सूख गये, और वृक्ष मुरझा गए । सब हाथियों ने मिलकर अपने गजराज चतुर्दन्त को कहा कि हमारे बच्चे भूख-प्यास से मर गए, जो शेष हैं मरने वाले हैं । इसलिये जल्दी ही किसी बड़े तालाब की खोज की जाय ।

बहुत देर सोचने के बाद चतुर्दन्त ने कहा—-“मुझे एक तालाब याद आया है । वह पातालगङगा के जल से सदा भरा रहता है । चलो, वहीं चलें ।” पाँच रात की लम्बी यात्रा के बाद सब हाथी वहाँ पहुँचे । तालाब में पानी था । दिन भर पानी में खेलने के बाद हाथियों का दल शाम को बाहर निकला । तालाब के चारों ओर खरगोशों के अनगिनत बिल थे । उन बिलों से जमीन पोली हो गई थी । हाथियों के पैरों से वे सब बिल टूट-फूट गए । बहुत से खरगोश भी हाथियों के पैरों से कुचले गये । किसी की गर्दन टूट गई, किसी का पैर टूट गया । बहुत से मर भी गये ।

हाथियों के वापस चले जाने के बाद उन बिलों में रहने वाले क्षत-विक्षत, लहू-लुहान खरगोशों ने मिल कर एक बैठक की । उस में स्वर्गवासी खरगोशों की स्मृति में दुःख प्रगट किया गया तथा भविष्य के संकट का उपाय सोचा गया । उन्होंने सोचा—-आस-पास अन्यत्र कहीं जल न होने के कारण ये हाथी अब हर रोज इसी तालाब में आया करेंगे और उनके बिलों को अपने पैरों से रौंदा करेंगे । इस प्रकार दो चार दिनों में ही सब खरगोशों का वंशनाश हो जायगा । हाथी का स्पर्श ही इतना भयङकर है जितना साँप का सूँघना, राजा का हँसना और मानिनी का मान ।

इस संकट से बचाने का उपाय सोचते-सोचते एक ने सुझाव रखा—-“हमें अब इस स्थान को छोड़ कर अन्य देश में चले जाना चाहिए । यह परित्याग ही सर्वश्रेष्ठ नीति है । एक का परित्याग परिवार के लिये, परिवार का गाँव के लिये, गाँव का शहर के लिये और सम्पूर्ण पृथ्वी का परित्याग अपनी रक्षा के लिए करना पड़े तो भी कर देना चाहिये ।”

किन्तु, दूसरे खरगोशों ने कहा—-“हम तो अपने पिता-पितामह की भूमि को न छोड़ेंगे ।”

कुछ ने उपाय सुझाया कि खरगोशों की ओर से एक चतुर दूत हाथियों के दलपति के पास भेजा जाय । वह उससे यह कहे कि चन्द्रमा में जो खरगोश बैठा है उसने हाथियों को इस तालाब में आने से मना किया है । संभव है चन्द्रमास्थित खरगोश की बात को वह मान जाय ।”

बहुत विचार के बाद लम्बकर्ण नाम के खरगोश को दूत बना कर हाथियों के पास भेजा गया । लम्बकर्ण भी तालाब के रास्ते में एक ऊँचे टीले पर बैठ गया; और जब हाथियों का झुण्ड वहाँ आया तो वह बोला—-“यह तालाब चाँद का अपना तालाब है । यह मत आया करो ।”

गजराज—-“तू कौन है ?”

लम्बकर्ण—-“मैं चाँद में रहने वाला खरगोश हूँ । भगवान् चन्द्र ने मुझे तुम्हारे पास यह कहने के लिये भेजा है कि इस तालाब में तुम मत आया करो ।”

गजराज ने कहा—-“जिस भगवान् चन्द्र का तुम सन्देश लाए हो वह इस समय कहाँ है ?”

लम्बकर्ण—“इस समय वह तालाब में हैं । कल तुम ने खरगोशों के बिलों का नाश कर दिया था । आज वे खरगोशों की विनति सुनकर यहाँ आये हैं । उन्हीं ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है ।”

गजराज—-“ऐसा ही है तो मुझे उनके दर्शन करा दो । मैं उन्हें प्रणाम करके वापस चला जाऊँगा ।”

लम्बकर्ण अकेले गजराज को लेकर तालाब के किनारे पर ले गया । तालाब में चाँद की छाया पड़ रही थी । गजराज ने उसे ही चाँद समझ कर प्रणाम किया और लौट पड़ा । उस दिन के बाद कभी हाथियों का दल तालाब के किनारे नहीं आया।

धूर्त बिल्ली का न्याय | मजेदार कहानियां

एक जंगल में विशाल वृक्ष के तने में एक खोल के अन्दर कपिंजल नाम का तीतर रहता था । एक दिन वह तीतर अपने साथियों के साथ बहुत दूर के खेत में धान की नई-नई कोंपलें खाने चला गया।

बहुत रात बीतने के बाद उस वृक्ष के खाली पडे़ खोल में ’शीघ्रगो’ नाम का खरगोश घुस आया और वहीँ रहने रहने लगा।

कुछ दिन बाद कपिंजल तीतर अचानक ही आ गया । धान की नई-नई कोंपले खाने के बाद वह खूब मोटा-ताजा हो गया था । अपनी खोल में आने पर उसने देखा कि वहाँ एक खरगोश बैठा है । उसने खरगोश को अपनी जगह खाली करने को कहा ।

खरगोश भी तीखे स्वभाव का था; बोला —-“यह घर अब तेरा नहीं है । वापी, कूप, तालाब और वृक्ष के घरों का यही नियम है कि जो भी उनमें बसेरा करले उसका ही वह घर हो जाता है । घर का स्वामित्व केवल मनुष्यों के लिये होता है , पक्षियों के लिये गृहस्वामित्व का कोई विधान नहीं है ।”

झगड़ा बढ़ता गया । अन्त में, कर्पिजल ने किसी भी तीसरे पंच से इसका निर्णय करने की बात कही । उनकी लड़ाई और समझौते की बातचीत को एक जंगली बिल्ली सुन रही थी। उसने सोचा, मैं ही पंच बन जाऊँ तो कितना अच्छा है; दोनों को मार कर खाने का अवसर मिल जायगा ।

यह सोच हाथ में माला लेकर सूर्य की ओर मुख कर के नदी के किनारे कुशासन बिछाकर वह आँखें मूंद बैठ गयी और धर्म का उपदेश करने लगी।

उसके धर्मोपदेश को सुनकर खरगोश ने कहा—“यह देखो ! कोई तपस्वी बैठा है, इसी को पंच बनाकर पूछ लें ।”

तीतर बिल्ली को देखकर डर गया; दूर से बोला—-“मुनिवर ! तुम हमारे झगड़े का निपटारा कर दो । जिसका पक्ष धर्म-विरुद्ध होगा उसे तुम खा लेना ।”

यह सुन बिल्ली ने आँख खोली और कहा— “राम-राम ! ऐसा न कहो । मैंने हिंसा का नारकीय मार्ग छोड़ दिया है । अतः मैं धर्म-विरोधी पक्ष की भी हिंसा नहीं करुँगी । हाँ, तुम्हारा निर्णय करना मुझे स्वीकार है । किन्तु, मैं वृद्ध हूँ; दूर से तुम्हारी बात नहीं सुन सकती, पास आकर अपनी बात कहो ।”

बिल्ली की बात पर दोनों को विश्वास हो गया; दोनों ने उसे पंच मान लिया, और उसके पास आगये ।उसनेभी झपट्टा मारकर दोनों को एक साथ ही पंजों में दबोच लिया ।

बकरा, ब्राह्मण और तीन ठग | मजेदार कहानियां

किसी गांव में सम्भुदयाल नामक एक ब्राह्मण रहता था। एक बार वह अपने यजमान से एक बकरा लेकर अपने घर जा रहा था। रास्ता लंबा और सुनसान था। आगे जाने पर रास्ते में उसे तीन ठग मिले। ब्राह्मण के कंधे पर बकरे को देखकर तीनों ने उसे हथियाने की योजना बनाई।

एक ने ब्राह्मण को रोककर कहा, “पंडित जी यह आप अपने कंधे पर क्या उठा कर ले जा रहे हैं। यह क्या अनर्थ कर रहे हैं? ब्राह्मण होकर कुत्ते को कंधों पर बैठा कर ले जा रहे हैं।”

ब्राह्मण ने उसे झिड़कते हुए कहा, “अंधा हो गया है क्या? दिखाई नहीं देता यह बकरा है।”

पहले ठग ने फिर कहा, “खैर मेरा काम आपको बताना था। अगर आपको कुत्ता ही अपने कंधों पर ले जाना है तो मुझे क्या? आप जानें और आपका काम।”

थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला। उसने ब्राह्मण को रोका और कहा, “पंडित जी क्या आपको पता नहीं कि उच्चकुल के लोगों को अपने कंधों पर कुत्ता नहीं लादना चाहिए।”

पंडित उसे भी झिड़क कर आगे बढ़ गया। आगे जाने पर उसे तीसरा ठग मिला।

उसने भी ब्राह्मण से उसके कंधे पर कुत्ता ले जाने का कारण पूछा। इस बार ब्राह्मण को विश्वास हो गया कि उसने बकरा नहीं बल्कि कुत्ते को अपने कंधे पर बैठा रखा है।

थोड़ी दूर जाकर, उसने बकरे को कंधे से उतार दिया और आगे बढ़ गया। इधर तीनों ठग ने उस बकरे को मार कर खूब दावत उड़ाई।

इसीलिए कहते हैं कि किसी झूठ को बार-बार बोलने से वह सच की तरह लगने लगता है।

अतः अपने दिमाग से काम लें और अपने आप पर विश्वास करें।

कबूतर का जोड़ा और शिकारी | मजेदार कहानियां

एक जगह एक लोभी और निर्दय व्याध रहता था । पक्षियों को मारकर खाना ही उसका काम था । इस भयङकर काम के कारण उसके प्रियजनों ने भी उसका त्याग कर दिया था । तब से वह अकेला ही, हाथ में जाल और लाठी लेकर जङगलों में पक्षियों के शिकार के लिये घूमा करता था ।

एक दिन उसके जाल में एक कबूतरी फँस गई । उसे लेकर जब वह अपनी कुटिया की ओर चला तो आकाश बादलों से घिर गया । मूसलधार वर्षा होने लगी । सर्दी से ठिठुर कर व्याध आश्रय की खोज करने लगा । थोड़ी दूरी पर एक पीपल का वृक्ष था । उसके खोल में घुसते हुए उसने कहा—-“यहाँ जो भी रहता है, मैं उसकी शरण जाता हूँ । इस समय जो मेरी सहायता करेगा उसका जन्मभर ऋणी रहूँगा ।”

उस खोल में वही कबूतर रहता था जिसकी पत्‍नी को व्याध ने जाल में फँसाया था । कबूतर उस समय पत्‍नी के वियोग से दुःखी होकर विलाप कर रहा था । पति को प्रेमातुर पाकर कबूतरी का मन आनन्द से नाच उठा । उसने मन ही मन सोचा—-’मेरे धन्य भाग्य हैं जो ऐसा प्रेमी पति मिला है । पति का प्रेम ही पत्‍नी का जीवन है । पति की प्रसन्नता से ही स्त्री-जीवन सफल होता है । मेरा जीवन सफल हुआ ।’ यह विचार कर वह पति से बोली—

“पतिदेव ! मैं तुम्हारे सामने हूँ । इस व्याध ने मुझे बाँध लिया है । यह मेरे पुराने कर्मों का फल है । हम अपने कर्मफल से ही दुःख भोगते हैं । मेरे बन्धन की चिन्ता छोड़कर तुम इस समय अपने शरणागत अतिथि की सेवा करो । जो जीव अपने अतिथि का सत्कार नहीं करता उसके सब पुण्य छूटकर अतिथि के साथ चले जाते हैं और सब पाप वहीं रह जाते हैं ।”

पत्‍नी की बात सुन कर कबूतर ने व्याध से कहा—“चिन्ता न करो वधिक ! इस घर को भी अपना ही जानो । कहो,मैं तुम्हारी कौन सी सेवा कर सकता हूँ ?”

व्याध—-“मुझे सर्दी सता रही है, इसका उपाय कर दो ।”

कबूतर ने लकड़ियाँ इकठ्ठी करके जला दीं । और कहा—-“तुम आग सेक कर सर्दी दूर कर लो ।”

कबूतर को अब अतिथि-सेवा के लिये भोजन की चिन्ता हुई । किन्तु, उसके घोंसले में तो अन्न का एक दाना भी नहीं था । बहुत सोचने के बाद उसने अपने शरीर से ही व्याध की भूख मिटाने का विचार किया । यह सोच कर वह महात्मा कबूतर स्वयं जलती आग में कूद पड़ा । अपने शरीर का बलिदान करके भी उसने व्याध के तर्पण करने का प्रण पूरा किया ।

व्याध ने जब कबूतर का यह अद्‌भुत बलिदान देखा तो आश्चर्य में डूब गया । उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी । उसी क्षण उसने कबूतरी को जाल से निकाल कर मुक्त कर दिया और पक्षियों को फँसाने के जाल व अन्य उपकरणों को तोड़-फोड़ कर फैंक दिया ।

कबूतरी अपने पति को आग में जलता देखकर विलाप करने लगी । उसने सोचा—-“अपने पति के बिना अब मेरे जीवन का प्रयोजन ही क्या है ? मेरा संसार उजड़ गया, अब किसके लिये प्राण धारण करुँ ?” यह सोच कर वह पतिव्रत भी आग में कूद पड़ी । इन दोंनों के बलिदान पर आकाश से पुष्पवर्षा हुई । व्याध ने भी उस दिन से प्राणी-हिंसा छोड़ दी ।

ब्राह्मण और सर्प की कथा | मजेदार कहानियां

किसी नगर में हरिदत्त नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी खेती साधारण ही थी, अतः अधिकांश समय वह खाली ही रहता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु में वह इसी प्रकार अपने खेत पर वृक्ष की शीतल छाया में लेटा हुआ था। सोए-सोए उसने अपने समीप ही सर्प का बिल देखा, उस पर सर्प फन फैलाए बैठा था।

उसको देखकर वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि हो-न-हो, यही मेरे क्षेत्र का देवता है। मैंने कभी इसकी पूजा नहीं की। अतः मैं आज अवश्य इसकी पूजा करूंगा। यह विचार मन में आते ही वह उठा और कहीं से जाकर दूध मांग लाया।

उसे उसने एक मिट्टी के बरतन में रखा और बिल के समीप जाकर बोला, “हे क्षेत्रपाल! आज तक मुझे आपके विषय में मालूम नहीं था, इसलिए मैं किसी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं कर पाया। आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे धन-धान्य से समृद्ध कीजिए।”

इस प्रकार प्रार्थना करके उसने उस दूध को वहीं पर रख दिया और फिर अपने घर को लौट गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब वह अपने खेत पर आया तो सर्वप्रथम उसी स्थान पर गया। वहां उसने देखा कि जिस बरतन में उसने दूध रखा था उसमें एक स्वर्णमुद्रा रखी हुई है।

उसने उस मुद्रा को उठाकर रख लिया। उस दिन भी उसने उसी प्रकार सर्प की पूजा की और उसके लिए दूध रखकर चला गया। अगले दिन प्रातःकाल उसको फिर एक स्वर्णमुद्रा मिली।इस प्रकार अब नित्य वह पूजा करता और अगले दिन उसको एक स्वर्णमुद्रा मिल जाया करती थी।

कुछ दिनों बाद उसको किसी कार्य से अन्य ग्राम में जाना पड़ा। उसने अपने पुत्र को उस स्थान पर दूध रखने का निर्देश दिया। तदानुसार उस दिन उसका पुत्र गया और वहां दूध रख आया। दूसरे दिन जब वह पुनः दूध रखने के लिए गया तो देखा कि वहां स्वर्णमुद्रा रखी हुई है।

उसने उस मुद्रा को उठा लिया और वह मन ही मन सोचने लगा कि निश्चित ही इस बिल के अंदर स्वर्णमुद्राओं का भण्डार है। मन में यह विचार आते ही उसने निश्चय किया कि बिल को खोदकर सारी मुद्राएं ले ली जाएं। सर्प का भय था। किन्तु जब दूध पीने के लिए सर्प बाहर निकला तो उसने उसके सिर पर लाठी का प्रहार किया।

इससे सर्प तो मरा नहीं और इस प्रकार से क्रुद्ध होकर उसने ब्राह्मण-पुत्र को अपने विषभरे दांतों से काटा कि उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उसके सम्बधियों ने उस लड़के को वहीं उसी खेत पर जला दिया।

कहा भी जाता है लालच का फल कभी मीठा नहीं होता है।

बूढा आदमी, युवा पत्नी और चोर | मजेदार कहानियां

किसी ग्राम में किसान दम्पती रहा करते थे। किसान तो वृद्ध था पर उसकी पत्नी युवती थी। अपने पति से संतुष्ट न रहने के कारण किसान की पत्नी सदा पर-पुरुष की टोह में रहती थी, इस कारण एक क्षण भी घर में नहीं ठहरती थी। एक दिन किसी ठग ने उसको घर से निकलते हुए देख लिया।

उसने उसका पीछा किया और जब देखा कि वह एकान्त में पहुँच गई तो उसके सम्मुख जाकर उसने कहा,

“देखो, मेरी पत्नी का देहान्त हो चुका है। मैं तुम पर अनुरक्त हूं। मेरे साथ चलो।”

वह बोली, “यदि ऐसी ही बात है तो मेरे पति के पास बहुत-सा धन है, वृद्धावस्था के कारण वह हिलडुल नहीं सकता। मैं उसको लेकर आती हूं, जिससे कि हमारा भविष्य सुखमय बीते।”

“ठीक है जाओ। कल प्रातःकाल इसी समय इसी स्थान पर मिल जाना।”

इस प्रकार उस दिन वह किसान की स्त्री अपने घर लौट गई। रात होने पर जब उसका पति सो गया, तो उसने अपने पति का धन समेटा और उसे लेकर प्रातःकाल उस स्थान पर जा पहुंची। दोनों वहां से चल दिए। दोनों अपने ग्राम से बहुत दूर निकल आए थे कि तभी मार्ग में एक गहरी नदी आ गई।

उस समय उस ठग के मन में विचार आया कि इस औरत को अपने साथ ले जाकर मैं क्या करूंगा। और फिर इसको खोजता हुआ कोई इसके पीछे आ गया तो वैसे भी संकट ही है।

अतः किसी प्रकार इससे सारा धन हथियाकर अपना पिण्ड छुड़ाना चाहिए। यह विचार कर उसने कहा, “नदी बड़ी गहरी है। पहले मैं गठरी को उस पार रख आता हूं, फिर तुमको अपनी पीठ पर लादकर उस पार ले चलूंगा। दोनों को एक साथ ले चलना कठिन है।”

“ठीक है, ऐसा ही करो।” किसान की स्त्री ने अपनी गठरी उसे पकड़ाई तो ठग बोला, “अपने पहने हुए गहने-कपड़े भी दे दो, जिससे नदी में चलने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। और कपड़े भीगेंगे भी नहीं।”

उसने वैसा ही किया। उन्हें लेकर ठग नदी के उस पार गया तो फिर लौटकर आया ही नहीं।

वह औरत अपने कुकृत्यों के कारण कहीं की नहीं रही।

इसलिए कहते हैं कि अपने हित के लिए गलत कर्मों का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।

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